September 1, 2023

Influence of Philosophical Imitation Theory in Ram Sangeet

LOKOGANDHAR ISSN : 2582-2705
Indigenous Art & Culture

Chhayarani Mandal, Assistant Professor, Sangeet Bhawan, Vishwabharati, Shantiniketan, West Bengal

Abstract:

This study delves into the profound influence of philosophical imitation theory on the traditional Indian musical genre known as Ram Sangeet. Rooted in the ancient philosophy of artistic imitation, this theoretical framework posits that artistic expression can be enhanced through the imitation of universal truths and archetypal concepts. The research explores the ways in which Ram Sangeet, a musical tradition deeply embedded in the cultural and spiritual fabric of India, has incorporated and adapted the principles of philosophical imitation.

Through a comprehensive analysis of key compositions and performances, the study aims to unveil the subtle nuances and transformative elements brought about by the integration of philosophical imitation theory into the artistic practices of Ram Sangeet. By examining historical developments, notable compositions, and the evolution of performance techniques, this research sheds light on the symbiotic relationship between philosophy and music within the context of Ram Sangeet.

Furthermore, the study considers the implications of philosophical imitation on the aesthetic and emotive dimensions of Ram Sangeet, emphasizing its role in fostering a deeper connection between the artist, the audience, and the timeless themes represented in the musical narratives. The findings contribute to a nuanced understanding of the interplay between philosophy and the arts, offering insights into the dynamic nature of cultural expressions and their ability to transcend temporal and spatial boundaries.

In conclusion, this investigation serves as a valuable resource for scholars, musicians, and enthusiasts interested in the intersections of philosophy and music, showcasing the enduring resonance of philosophical imitation theory within the rich tapestry of Ram Sangeet.

राम संगीत में दार्शनिक अनूकरण सिद्धान्त की प्रभाव

छायारानी मंडल, एसिसटेन्ट प्रोफेसर, संगीत भवन, विश्वभारती, शान्तिनिकेतन, प. बंगाल।

अनूभूति, अनुकरण, अभिव्यक्ति, प्रतिरुपण-

मुख्य शब्द: राग-संगीत में दार्शनिक अनुकरण सिद्धान्त (Imitation theory in Indian classical music)- अनुकरण सिद्धान्त सभी कला और संगीत में सबसे पुराना मत है। यह मत में तिन अनुभूतियों को विशेष मर्यादा देना पड़ता है। यह तिन है- अनुकरण, प्रतिरुपण और अभिव्यक्ति (Imitation, representation and expression). यह तिन शब्द का अर्थ एकहि माना जाता है, ऐसे तो एक प्रस्तुत किया गया कला-संगीत जैसी है ठीक वैसी ही उसकी नकल बना देना ठीक उसी तरह गा देना उसी अभिव्यक्ति के साथ जिसे (Imitation) अनुकरण का नाम से ही पहचाना जाता है। ऐसी नकल करना कभी कलाकारों का सचमुच आदर्श हुआ करता था। अनुकरणात्मक संगीत प्रस्तुत करना, उसके भीतर भाव- रस की अनुभव को संयोजन करना कोई सहज काम नहीं है। विशेष रुप में पहले कला का अनुकरण होना चाहिए, इसके पश्चात् गायक-वादक खुद का मौलिक सत्ता, खुद का कल्पना और चिन्तन से दूसरा अनुभव का परिचय देते हैं। पहले गुरु के तरह शिखना-शिखाना में जो अनुकरण का प्रतिफलन है उसे हमारे राग संगीत में क्या स्थान है और उसकी सौन्दर्य शास्त्रीय विचारण की भूमिका है उसके आधार के उपर एक तुलनात्मक प्रयास इस लेखका विषयवस्तु है।

अनुकरण की यथार्थ रूप-

      शूरु में अनुकरण सिद्धान्त (Imitation theory of Art) को स्पष्ट रूप से पहचानना है। अनुकरण क्या है? एक गाना, एक वोल, एक कोई भी चीज जैसी है ठीक वैसी ही उसकी नकल बना देना । उसकी जैसी गा देना, नकल करना को अनुकरण बोलते हैं। इसके बाद और एक सवाल उठ खड़ा होता है? क्या ऐसी नकल करना कभी कलाकारों का आदर्श रहा है? यहाँ हमें ‘हाँ’ या ना में बोलना होगा। अगर ‘ना’ बोलेगें तो क्यों और हाँ बोलेगें तो भी क्यों? पहले इस उत्तर हाँ में आना चाहिए क्योंकि कोई भी चीज तब आता है जब हम उसे प्रतिफलन / प्रतिरोपन करते है। सोचते है कि हमने देखा है और दूनियाँ का हर चीज हमें पता नहीं इसलिए जिस किसी काम काज, पढाई, राग संगीत हमें अच्छी लगती है वही चीज हमारे अवचेतन मन में घुमा फिराकर आ जाता है मगर इसको अनुकरण नहीं बोलते हैं क्योंकि एकदम जैसी की तैसी नकल तब नहीं आती सिर्फ आती है अच्छी लगती हुई कुछ- कुछ पल की धुन और बोल जिसे हम अनुकरण नहीं बोलते। यह अनुकरण, संगीत और चित्रकला में एक नहीं होता। चित्र में अधिक से अधिक अनुकरनात्मक होता है, एक अंग के कुछ गुच्छों का एक आक ऐसा सजीव चित्र बनाया गया था कि चिड़िये आकर उन पर चोंच मारने लगी। जैसे कि कोई पेड़ पर लटक रहा है सोचने कि बात है इस तरह का चित्र अधिक से अधिक अनुकरणात्मक है और इसमें बड़ा गर्व महसूस करते है। लेकिन कोई अगर किसी गुनी संगीतज्ञ, कलाकार बड़ा कलाकार की ख्याल की वैसे ही अनुकरण या नकल कर (स्वर से लेकर तान तक) गा देती है तो उसको अच्छी तो वोलते नहीं उपरान्त वह ज्यादा दिन तक उसका नाम रोषन नहीं कर सकता कारण कोई भी नहीं बोलगे की राम राम की तरह गा रहा है बल्कि बोलेगें राम श्याम के गले में और श्याम की तरह गा रहा है उसमें कोई बड़ा बात नहीं हैं। उसमें उसकी कोई असलियत नहीं है। यही है एक चित्रकार और संगीतकार में अन्तर।

      यहाँ संगीत की अनुकरणात्मक अभिव्यक्ति पर एक नजर डालते हैं। प्राचीन काल में जो राग संगीत या उसकी कई घराना, शैलियाँ है तब गुरु के पास शिष्य रहकर उसकी तरह उसी शैली में ही गा रहे थे। जब तक गुरूजी की आदेश नहीं मिलता तव तक छात्र व छात्रा एक ही ढंग मेँ ख्याल शिखते है। इसी तरह बहुत विधियाँ या प्रत्येक घराना में कुछ-कुछ मौलिक कायदा कानून रहा करता था उसको नहीं मानने से उसी घर से वेदखल हो जाता था मतलब वही घर से उसकी लगाव छुट जाता था। इसलिए बहुत सारे नीति से दोनों बंधा हुआ करते थे। यहाँ गुरू की अनुकरण करके उसके साथ खुद का ख्याल, धारा जोड़कर उसकी अभिव्यक्ति का प्रतिरूपण करते थे और मान ले कि अगर गुरु की तरह गा रही है तो भी कुछ ना कुछ थोड़ा बहुत अलग रह जाता है जिसमें उसकी खुदकी नाम में पहचाना जाता है। इस आधार पर SH. Butcher का एक बात याद आती है- (Music is a copy of character) in rhythms and melodies we have the most realistic imitation of anger and mildness as well as of courage, temperance and all their opposites … and in reflecting … (all this Music mould’s and influences characters).

      सांगीतिक अभिव्यक्ति- पहले राग संगीत में भाव का एक खास तालुक रहा करता था क्योंकि एक गायक बहु विध नियम के साथ अधिक से अधिक संयम साथ के सालसे एक ही चीज को लेकर रहा करता या उसके उपरान्त उसकी अभिव्यक्ति में उसी स्वर के एक लगाव हो जाता था मगर एकदम किसी के तरह नहीं होता था क्योंकि शिखने के बाद खुद के सोच से ही वह उसकी चिन्तन करता था और प्रतिरोपण भी । मगर कुछ पहलु से एक ही जैसा कोई गा देते थे जिसको लेने में थोड़ा समय लगता था। कोई सूर साधक ढंग से मिठा आवाज-मिठास के शाथ धुआँधार तान-सरगम के साथ अगर कोई राग परिवेषण करते हैं तो उस की प्रशंसा की जाएं यह कहकर कि उसने बहुत अच्छी नकल की। उत्तर में वही कलाकार बोलेंगें कि किसी भी चीज की नकल करने का सबाल ही नहीं पैदा हुआ क्योंकि हम तो सिर्फ ढंग से गाने पर ही ध्यान दिये थे। इससे समझा जाए कि एक और अपने संगीत में ध्यान देना और दूसरी और दूसरे की संगीत में से अलग रहना चाहिए। परन्तु अगर कुछ चीज को ध्यान में लिया जाए तो समझ में आएगा की एक राग संगीत में उसकी चलन – विस्तार, वन्दीय और‍ तान-सरगम सब कुछ एक ही है। एक ही स्वर के साथ-साथ चलती है फिर भी उसकी स्वर में फर्क रहेगा और अनुकरण यानि सामिल भी होना होगा। यह बहुत ही मुश्किल मेहसूस है। राग संगीत में यह दार्शनिक तकनिक साधारण अर्थ में समझना बहुत ही कठिन है।

      कला और संगीत में अनुकरण की बात है लेकिन थोड़ा अपने ही ढंग से करते है। एक और अनुकरण यानि नकल की तारिफ करते हैं और नकलों अनुकरणों वालो को समाज की हित में अच्छा नहीं मानते और आदर्श अनुकरण को भी कभी सच्ची सम्मान नहीं देते हैं। परन्तु एक बात तो मानना पड़ेगा की स्वनिवेदन और अनुकरण कभी एक नहीं होता क्योंकि अनुकरण करते समय खुदका बहुत कुछ छोड़ना ही पड़ता है। अर्थात् वह कलाकार और संगीतकार जो आदर्श अनुकरण में सिद्धहस्त है उसे अपनी सृजन-प्रक्रिया में बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है और इसलिए उसका अनुकरण पूर्णतः मर्यादा की स्थान नहीं ले पाता।

      सभी कला के भीतर संगीत को श्रेष्ठ माना जाता है यह राग-संगीत पर ही जाता है। राग- संगीत में बहुत विधियाँ है और एक महत्वपूर्ण बात है प्रत्येक संगीतकार का अपना-अपना मिजाज होता है। अपनी-अपनी देखने-सोचने की विधि, अनुभूति और अभिरुचियाँ भी होते है तो इससे स्पष्ट जाता है कि अनुकरण वस्तु-विशेष के स्वरूप से चलता है, अपनी-अपनी आदर्श से उसकी अस्तित्व पहचाने जा सकती है। संगीत में अनुकरण जरुरी है लेकिन एकदम अनुरुप नहीं अपनी-अपनी स्वअनुभूमि के साथ अनुकरण करना चाहिए। कलाकार की यही क्षमता स्पष्ट रूप से नजर आना चाहिए। कोई भी कला एक प्रकार का संजोग (Communication) नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक अनुकरण- अभिव्यक्ति को लेकर हम चलते है। अन्दर से अनुकरण को बाहर करते है प्रतिरूपण के साथ कला मनूष्य के जीवन की समृद्धि प्रकट करती है, जो पूर्णता के स्वरूपों में अपनी स्वतन्त्रता ढूंढती है जो स्वंग ही अपना साध्य है। अर्थात् – Art reveals man’s wealth of life, which seek its freedom in forms of perfection, which are an end in themselves. — R.N. Tagore.

      मानव जीवन की समृद्धि उसकी मानसिक प्राण-शक्ति की अभिव्यक्ति में है, जो प्रत्येक मनुष्य में होती है परन्तु जो उसकी दैनिक आवश्यकता पुरी करने में समाप्त नहीं होती क्योंकी विश्रन्ति के क्षणों में व्यक्ति अपनी इस अभिव्यक्ति को अतिरिक्त सम्पूर्णता के स्वरूपों में देखना चाहता है जिसका प्रतिरूपण व्यवहारिक नैतिक प्रभाव तो डालता है परन्तु चरमोत्कर्ष तक पहुचने में अस्मपूर्ण रह जाता है जिसको कला की वस्तुगत स्वअभिव्यक्ति (Objective self expression) कहकर परिभाषित किया जा सकता है।

      जीवन में प्रतिक्षण की अनुभूति (Perception) एक-एक प्रतिरूपण के धारा लेकर उसकी विचार में महत्वपूर्ण बात को कोई भी परिस्थिति में अनुकरण करके सम्पूर्णता ला सकती है। इस आधार पर गजानन माधव मुक्तिबोध का “कला के तीनक्षण” की कुछ कथन याद आ जाता है-

      ‘‘कला के तीनक्षण’’ पहला क्षण- जीवन की एक तीव्र तथा गहरी प्रनीति का है। दूसरा- इस बोध को इसके दूःखने, धरकने और आधारों से अलग करना तथा इसको ऐसा स्वप्न चित्रीय स्वरूप देना है जो हमारे अपनी आखों के समक्ष ही खड़ा प्रतीत हो। तीसरा अन्तीम क्षण है जिसमें इस स्वप्न चित्रीय स्वरूप की शब्दों में मूर्तिमान होने की तथा चरमोत्कर्ष तक पहुंचने की उन्नति-प्रक्रिया आरम्भ भी हो जाए और परिपूर्ण भी।

      In my view the important thing [to remember] is that art has three [distinct] moment, the first is the moment of an intense and penetrating perception of life, the second is of severance of this perception from its aching, pulsating roots and its assumption of the form of a fantasy which may seem to stand before One’s very eyes and the third and the last moment is that of both the beginning of the process of this fantasy’s on carnation in words and of its progression till it attains to completion “Muktibodh”

      हमारे पूरी जीवन साहित्य संगीत में जुड़ी हुई है और यह संगीत जो कि पूर्णत: अनुभवों और प्रतिक्रियाओं के साथ जुड़ी हुई है। जिसको उत्तर देना दर्शन नीति विद्या का काम है। फिर भी जीवन की कुछ चीज संगीत में जैसी सृजन में बोध डाल रखी है कि उसकी बिना हमारा जीना मुसकिल हो जाता है। दर्शन हर किसी क्षण हर किसी वस्त और हर किसी विषय पर चल रहा है जो कि पूर्णतः अनुकरण सिद्धान्त में ही सम्पूर्ण होता है। एक शिशु वाल समय में सब कुछ दिख रहा है और समझ रहा है कि कैसे चलना है हर पल हर कदम को नापते हुए तो हमारे जो दार्शनिक अनुकरण सिद्धान्त वह सब विषय में लागु होता है। राग-संगीत में इसका जो स्थान इसको हम कुछ मात्रा से जालते है परन्तु यह अनुकरण, प्रतिरूपण और अभिव्यक्ति राग-संगीत के साथ गहरा सम्बन्ध रखता है। शास्त्रीय संगीत में आन्तरिकता उसकी वैशिष्ट है क्योंकि हमारी यह कला अन्तर और आन्तरिकता के बलबुते पर टिका हुआ है। अन्तर का अभिव्यक्ति (expression) को सूर में प्रतिरूपण (representation) करने में पहले से किसी भाव-ध्वनि सूर का अनुकरण (Imitation) जरुरी है नहीं तो अन्तर की जो अनुभूति वह बाहर की दुनियाँ के साथ संजोग (Communicate) नहीं हो सकता ।

      अब यह तिन विषेश शब्द एक मुख्य शब्द के ऊपर लगाया जा सकता है। वह शब्द अनुभूतियाँ मनोभाव जिसे हम (emotion) कहते है। इससे एक ही, एकहि पल में वस्तु पर मनोभाव बदल सकता है। क्योंकि एक साथ जितने लोग है वह सब की मनोभाव एक जैसे नहीं है। मनोभाव और अभिव्यक्ति एक-दूसरे की परछाई जैसे है। सभी अभिव्यक्ति का आधार है सामान्यतः मनोभाव की अभिव्यंजना- अभिव्यक्ति है। मनोभाव को अभिव्यक्ति करने के लिए एक ठोस माध्यम चाहिए चाहे वह शब्द हो या सूर, ताल या राग। सब के लिए चाहिए मानसिक स्थिरता । अगर मन की वातावरण अशात्न हो तो कतई संगीत भावपूर्ण नहीं होगा। इसलिए शान्तभाव से जब ख्याल शिल्पी (गायक) कोई विलम्बित गायकी छोड़ता है उसकी एकाग्रता और ध्यान में सूर-ताल एक अन्य रूप लेता है जिसके सोता मुग्ध हो कर सुनते हैं। उसमें वह रेली आवाज र विस्तार है होकर होता रहता है और उसी को भाव की अभिव्यक्ति कहते हैं।

      अनुकरण सिद्धान्त में जो भावनात्मक अभिव्यक्ति है वह भारतीय संगीत में एक जोगिया जगह ले रखा है। इसलिए जब कोई संगीत गायक आवपूर्वक अभिव्यक्ति के साथ पुरिया जैसे रागों की उचित प्रस्तुत करेंगे तो कोई भी उस करुण स्वर में प्रभावित हो जाती यही तिन अभिव्यंजना अतिरिक्त खड़ा हो नहीं सकती। कलात्मक रूप हो या सृजनात्मक रूप ही सभी का अन्त अभिव्यक्ति में ही होगा। इसलिए एक लेख- “A work of art is on expressive from created for our perception through since or imagination and what it expresses is human feeling. 4

      कभी-कभी किसी वाद्य में और राग के आलाप सुनते समय वैसा लगता है कि चाही कोई गहरा नाद समुन्द्र में तैरती है स्वरों की महातरंग जैसी । अन्त: प्रेरणा को अनुभूति के साथ अभिव्यक्ति करना संगीत में एक विशिष्ट भाव है। इसलिए राग-संगीत में दार्शनिक अनुकरण सिद्धान्त की एक विशिष्ट मान्यता है।

ग्रंथपंजि- Reference books

1. S.H. Butcher- Aristotle’s Theory of poetry and Fine Art.- P-129

2. Rabindra Nath Tagore- The meaning of Art, Lalit Kala Akademi – New Delhi 2nd rpt. 1983-p-2

3. गजानन माधव मुक्तिबोध का आधुनिक हिन्दी समीक्षा – P-150

4. S.K. Langer- Problems of Art – P-15

5. सुभद्रा चौधरी- भारतीय संगीत शास्त्र में दर्शन के तत्व । संगीत कार्यालय, हायरस- उ.प्र. 2003

6. विमला मुसलगाँवकर- भारतीय संगीत शास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन संगीत रिसर्च आकादेमी, कोलकाता-1995

7. मंजुला सक्सेना- कला और सौन्दर्य का दार्शनिक विवेचन, डी.के. प्रिण्टवर्ल्ड (प्रा.) लि., नई दिल्ली।

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